करम जब आम है साक़ी तो फिर तख़सीस ये कैसी
वो चाहे कम दे लेकिन सब को हिस्सा दे बराबर से
कहा साक़ी ने मैं सब को ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ देता हूँ
बराबर दे भी दूँ तो पी नहीं सकते बराबर से
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जो ग़ज़ल महलों से चल कर झोंपड़ों तक आ गई
एक दीवाने को जो आए हैं समझाने कई
बढ़ता हुआ हौसला न टूटे दिल का
पंद्रह अगस्त
सुना है कि उन से मुलाक़ात होगी
वो जो बिछड़े मौत याद आने लगी
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
तूफ़ाँ से थपेड़ों के सहारे निकल आए
मय-ख़्वारों से जब दूर नज़र आएगी
खुलती हैं वो मस्त आँखें हंगाम-ए-सहर ऐसे
हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते
दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं