ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे
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आ गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब
कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
ता उम्र फिर न होगी उजालों की आरज़ू
याद नहीं क्या क्या देखा था सारे मंज़र भूल गए
आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
जब न आने की क़सम आप ने खा रक्खी थी
धुआँ बना के फ़ज़ा में उड़ा दिया मुझ को
मैं ने दुनिया छोड़ दी लेकिन मिरा मुर्दा बदन
अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
ये हैं तैराक मगर हाल ये इन के देखे
जब ज़बानों में यहाँ सोने के ताले पड़ गए
मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था