ख़ूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए
शीश-महल ने ऐसा घेरा मिट्टी के घर भूल गए
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खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
मैं एक क़र्ज़ हूँ सर से उतार दे मुझ को
ये हैं तैराक मगर हाल ये इन के देखे
याद नहीं क्या क्या देखा था सारे मंज़र भूल गए
किसी ने हाथ बढ़ाया है दोस्ती के लिए
आ गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब
जब न आने की क़सम आप ने खा रक्खी थी
रोज़ ख़्वाबों में नए रंग भरा करता था
इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर