तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा
तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा
हमारा दिल बहुत तरसा अरे तरसा न अब तरसा
मैं उस पर मुब्तला वो ग़ैर मज़हब शोख़ अब तरसा
क़यामत है मुसलमाँ आशिक़ और माशूक़ है तरसा
फ़क़त तीर-ए-निगह से तो न दिल की आरज़ू निकली
तिरे क़ुर्बां लगा अब के कोई इस से भी बेहतर सा
न जाऊँ मैं तो उस के पास लेकिन क्या करूँ यारो
यकायक कुछ जिगर में आ के लग जाता है नश्तर सा
पुकारा दूर से दे कर सफ़ीर उस ने तो क्या मेरा
धड़क कर यक-ब-यक सीने में दिल लोटा कबूतर सा
हुआ बीमार तेरे इश्क़ में जो चर्ख़-ए-चारुम पर
मसीहा पढ़ रहा है कुछ बिछा कर अपना बिस्तर सा
'नज़ीर' इक दो गिले करने बहुत होते हैं ख़ूबाँ से
चलो अब चुप रहो बस खोल बैठे तुम तो दफ़्तर सा
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