मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
शाम हुई अब चलो सुब्ह फिर आ बैठना
होश रहा ने क़रार दीन रहा और न दिल रहा
पास बुतों के हमें ख़ूब न था बैठना
लुत्फ़ से ऐ दिल तुझे उस के जो अबरू बिठाए
बैठियो लेकिन बहुत पास न जा बैठना
दिल की हमारी ग़रज़ बाँधे है क्या बंद बंद
शोख़ का वो खोल कर बंद-ए-क़बा बैठना
कूचे में उस शोख़ के जाते तो हो ऐ नज़ीर
जुल में कहीं अपनी चाह तुम न जता बैठना
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