कल जो रुख़-ए-अ'रक़-फ़िशाँ यार ने टुक दिखा दिया
कल जो रुख़-ए-अ'रक़-फ़िशाँ यार ने टुक दिखा दिया
पानी छिड़क के ख़्वाब से फ़ित्ने को फिर जगा दिया
उस के शरार-ए-हुस्न ने शो'ला जो इक दिखा दिया
तूर को सर से पाँव तक फूँक दिया जला दिया
फिर के निगाह चार-सू ठहरी उसी के रू-ब-रू
उस ने तो मेरी चश्म को क़िबला-नुमा बना दिया
मेरा और उस का इख़्तिलात हो गया मिस्ल-ए-अब्र-ओ-बर्क़
उस ने मुझे रुला दिया मैं ने उसे हँसा दिया
मैं हूँ पतंग काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
तेशे की क्या मजाल थी ये जो तराशे बे-सुतूँ
था वो तमाम दिल का ज़ोर जिस ने पहाड़ ढा दिया
गुज़रे जो सू-ए-ख़ानक़ाह वाँ भी बशक्ल-ए-जानमाज़
अहल-ए-सलाह-ओ-ज़ुहद को फ़र्श किया बिछा दिया
निकले जो राह-ए-दैर से इक ही निगाह-ए-मस्त में
गब्र का सब्र खो दिया बुत को भी बुत बना दिया
शिकवा हमारा है बजा मुफ़्त-बरों से किस लिए
हम ने तो अपना दिल दिया हम को किसी ने क्या दिया
सुन के हमारे हाल का यार ने इक सुख़न 'नज़ीर'
हँस के कहा कि बस जी बस तुम ने तो सर फिरा दिया
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