नज़ीर अकबराबादी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का नज़ीर अकबराबादी (page 2)
नाम | नज़ीर अकबराबादी |
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अंग्रेज़ी नाम | Nazeer Akbarabadi |
जन्म की तारीख | 1735 |
मौत की तिथि | 1830 |
उस बेवफ़ा ने हम को अगर अपने इश्क़ में
तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से
तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
तू जो कल आने को कहता है 'नज़ीर'
तू है वो गुल ऐ जाँ कि तिरे बाग़ में है शौक़
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
थे हम तो ख़ुद-पसंद बहुत लेकिन इश्क़ में
ठहरना इश्क़ के आफ़ात के सदमों में 'नज़ीर'
था इरादा तिरी फ़रियाद करें हाकिम से
तेशे की क्या मजाल थी ये जो तराशे बे सुतूँ
तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
सुनो मैं ख़ूँ को अपने साथ ले आया हूँ और बाक़ी
शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा
शहर में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
शब को आ कर वो फिर गया हैहात
सरसब्ज़ रखियो किश्त को ऐ चश्म तू मिरी
सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ न आब लाओ
सब किताबों के खुल गए मअ'नी
रंज-ए-दिल यूँ गया रुख़ उस का देख
क़िस्मत में गर हमारी ये मय है तो साक़िया
पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
'नज़ीर' तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या
न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा
न गुल अपना न ख़ार अपना न ज़ालिम बाग़बाँ अपना
मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
मुँह ज़र्द ओ आह-ए-सर्द ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर
मिरी इस चश्म-ए-तर से अब्र-ए-बाराँ को है क्या निस्बत
मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
मरता है जो महबूब की ठोकर पे 'नज़ीर' आह