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बस्ती की ये ऊँची हवेली दर्द की चादर में लिपटी - नज़र सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

बस्ती की ये ऊँची हवेली दर्द की चादर में लिपटी

बस्ती की ये ऊँची हवेली दर्द की चादर में लिपटी

जाने किस को देख रही है बरसों से वीरान पड़ी

शायद तुम को याद तो होगा अहल-ए-ख़िरद वो दौर कि जब

अहल-ए-जुनूँ की ज़ंजीरों से ज़िंदानों में जान पड़ी

मज़हब से खिलवाड़ किया तो उस का ये अंजाम हुआ

मंदिर भी वीरान पड़ा है मस्जिद भी सुनसान पड़ी

किस ने किस को क़त्ल किया पहचान सको तो पहचानो

सामने ये तलवार पड़ी त्रिशूल पड़ा किरपान पड़ी

जिस दिन इक ज़ालिम ने इक मज़लूम का नाहक़ क़त्ल किया

उस दिन से इस दुनिया में कुछ रिश्तों की पहचान पड़ी

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