हम यूँही बिखरे नहीं हर-सू ख़स-ओ-ख़ाशाक में
हम यूँही बिखरे नहीं हर-सू ख़स-ओ-ख़ाशाक में
हैं नुमू-बर-दोश रंग-ओ-बू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
उस के होने का गुमाँ रहता है मेरे आस-पास
हर तरफ़ रच-बस गई ख़ुश्बू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
हो समर-आवर हमारी आबला-पाई कहीं
चैन आ जाए कसी पहलू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
चाहिए होती है किश्त-ए-ज़र को जब भी कुछ नुमू
मैं बहा देता हूँ कुछ आँसू ख़स-ओ-ख़ाशाक में
जानती है वो बसीरत तक को उलझाने का फ़न
जौ कशिश है सूरत-ए-जादू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
जब उधर उठते हैं ताले-आज़माओं के क़दम
बुझने लगते हैं इधर जुगनू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
ये तो ऐ 'जावेद' गुज़रे मौसमों की राख है
आख़िरश क्या ढूँढता है तू ख़स-ओ-ख़ाशाक मैं
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