अब हस्ती-ए-ख़राब का आलम सँवर गया
अब हस्ती-ए-ख़राब का आलम सँवर गया
इक नश्शा-ए-शबाब था सर से उतर गया
गुज़रा हूँ राह-ए-इश्क़ में मंज़िल से बे-नियाज़
आवाज़ उन की पाई जहाँ भी ठहर गया
मुड़ मुड़ के देखते हैं मुझे रहगुज़र पे लोग
मैं देखता हूँ ज़ोम-ए-मोहब्बत किधर गया
क़दमों को उस के छूता है ख़ुद मक़्सद-ए-हयात
जो मंज़िल-ए-नशात की हद से गुज़र गया
अंजाम-ए-इश्क़ देख रहा हूँ 'नज़र' से आज
मैं बे-ख़ुदी में अपने ही साए से डर गया
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