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सराब - नाज़ बट कविता - Darsaal

सराब

वस्ल के फ़साने से

हिज्र के ज़माने तक

फ़ासला है सदियों का

फ़ासला कुछ ऐसा है

उम्र की मसाफ़त भी

जिस को तय न कर पाए

मंज़िलों के मिलने तक

आरज़ू ही मर जाए

चार सम्त आहों के

दिल-फ़िगार मंज़र हैं

मंज़रों की बारिश में

आँख भीगी रहती है

आइने से कहती है

किस लिए सँवरती हों

क्यूँ सिंघार करती हूँ

अजनबी मुसाफ़िर का

इंतिज़ार करती हूँ

रोज़ रोज़ जीती हूँ

रोज़ रोज़ मरती हूँ

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In Hindi By Famous Poet Naz Butt. is written by Naz Butt. Complete Poem in Hindi by Naz Butt. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.