कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं
कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं
हज़ार ज़ख़्म पस-ए-ए'तिबार मिलते हैं
शब-ए-फ़िराक़ की वहशत न पूछिए हम से
हम अपने हिज्र से दीवाना-वार मिलते हैं
ये शहर-ए-ज़ख़्म-फ़रोशां है हाए क्या कीजे
कि पा-ए-गुल भी यहाँ ख़ार ख़ार मिलते हैं
वो जिन की कोख में शौक़-ए-ख़िरद पनपता है
वो वलवले भी जुनूँ का शिकार मिलते हैं
सजा के रखते हैं जिन को चमक की ख़्वाहिश में
वो आइने भी हमें दाग़-दार मिलते हैं
हमें उन्ही से तवक़्क़ो' है 'नाज़' मंज़िल की
जो रास्ते हमें बन कर ग़ुबार मिलते हैं
(469) Peoples Rate This