सीने पे कितने दाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
सीने पे कितने दाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
ज़ख़्मों का एक बाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
डर है कि तीरगी में क़दम डगमगा न जाए
इक शहर-ए-बे-चराग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
साक़ी न पूछ आज के शीशा-गरों का हाल
टूटा हुआ अयाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
क्या जाने किस के नाम है ये नामा-ए-करम
मिलता नहीं सुराग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
पूछे न जिस को हाल न मुस्तक़बिल-ए-हसीं
माज़ी का वो दिमाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
'नय्यर' हो ऐसे दौर में क्या रौशनी की बात
बिन तेल का चराग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
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