दिल ही तो है निगाह-ए-करम से पिघल गया
दिल ही तो है निगाह-ए-करम से पिघल गया
शिकवा लबों पे आ के तबस्सुम में ढल गया
पहुँचा न था यक़ीन की मंज़िल पे मैं अभी
मेरा ख़याल मुझ से भी आगे निकल गया
ख़ल्वत बनी हुई थी तिरी अंजुमन मगर
मैं आ गया तो बज़्म का नक़्शा बदल गया
वाँ मुतमइन करम कि दिया है ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़
याँ इज़्तिराब-ए-शौक़ में साग़र बदल गया
है चश्म-ए-इल्तिफ़ात को फ़िक्र-ए-शिकस्त-ए-दिल
शायद हरीफ़ कोई नई चाल चल गया
पिन्हाँ था लग़्ज़िशों में भी एहसास-ए-आगही
मैं क्या सँभल गया कि ज़माना सँभल गया
ख़ीरा है बज़्म-ए-यार में 'नय्यर' निगाह-ए-शौक़
शमएँ जलीं कि दामन-ए-नज़्ज़ारा जल गया
(476) Peoples Rate This