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क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते - नवाज़ असीमी कविता - Darsaal

क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते

क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते

उड़ान भरने से पहले अगर वुज़ू करते

फ़ना का ख़ौफ़ रहा रात भर मोहल्ले पर

फ़क़ीर गुज़रे थे कल शाम अल्लाह-हू करते

हमारे साये ज़मीनों में धँस चुके थे यहाँ

सफ़र का अज़्म भला कैसे चार सू करते

किसी पे धूप के चिलके न डालते हरगिज़

इक आइना भी अगर ख़ुद के रू-ब-रू करते

झुकी जबीन का मेयार बढ़ गया होता

गर अपने आप को मसजूद क़िबला-रू करते

अभी हुई हैं कहाँ पत्थरों की बरसातें

अभी से फिरने लगे क्यूँ लहू लहू करते

जो लोग मोम की दस्तार बाँधे फिरते है

ज़रा सी देर तो सुरज से गुफ़्तुगू करते

किरन के धागे का हम को अगर सिरा मिलता

हवाएँ सीते ख़लाओं को हम रफ़ू करते

'नवाज़' इस लिए ख़ामोशियों से लिपटे हैं

ज़बान खुलती तो पैदा नए अदू करते

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In Hindi By Famous Poet Nawaz Asimi. is written by Nawaz Asimi. Complete Poem in Hindi by Nawaz Asimi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.