कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
तुझ से मिलना बातें करना अच्छा लगता है
नथुनी से ऊपर पलकों से नीचे घूँघट रख
मुझ को आधा चाँद बहुत ही प्यारा लगता है
सदियों से है यूँ ही तर-ओ-ताज़ा और खुशबू-दार
कैसे कह दूँ इश्क़ गुलाबों जैसा लगता है
आँसू का क़तरा खारा ही होता है लेकिन
तुझ को देख कर छलके है तो मीठा लगता है
कहाँ तिरा अपना-पन और कहाँ मेरे एहसान
पर्बत हो कर भी मेरा क़द बौना लगता है
अब भी दिल वालों की बज़्में सजती हैं लेकिन
पहले मेले लगते थे अब मजमा' लगता है
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