चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर
चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर
हसीनों के क़दम हैं आसमाँ पर
हर इक लम्हा लगे वो आ रहे है
यक़ीं बढ़ता ही जाता है गुमाँ पर
कोई वा'दा वफ़ा हो जाए शायद
भरोसा आज भी है जान-ए-जाँ पर
उतरती ही नहीं बोसों की लज़्ज़त
अभी तक स्वाद रक्खा है ज़बाँ पर
किसी की रूह प्यासी रह न जाए
लिहाज़ा ग़म बरसते है जहाँ पर
अगर भटका तो उस को छोड़ देंगे
नज़र रक्खे हुए हैं कारवाँ पर
अमाँ हम भी किराए-दार ही हैं
भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर
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