ज़िंदगी मुख़्तसर मिली थी हमें
हसरतें बे-शुमार ले के चले
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उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में
न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
ये बातें आज की कल जिस किताब में लिखना
इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
पहले तो डर लगा मुझे ख़ुद अपनी चाप से
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
हम दोस्तों के लुत्फ़-ओ-करम देखते रहे
अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
ज़ंजीर-ए-जुनूँ कुछ और खनक हम रक़्स-ए-तमन्ना देखेंगे
सामने उस के एक भी न चली
मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के