आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मिरा घर भी आएगा
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न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
करना है शाइरी अगर 'नौशाद'
हम दोस्तों के लुत्फ़-ओ-करम देखते रहे
ठोकरें खाइए पत्थर भी उठाते चलिए
अपनी तदबीर न तक़दीर पे रोना आया
इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
सब कुछ सर-ए-बाज़ार जहाँ छोड़ गया है
ख़ुद मिट के मोहब्बत की तस्वीर बनाई है
दुनिया कहीं जो बनती है मिटती ज़रूर है
मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के
हाए कैसी वो शाम होती है