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हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था - नो बहार साबिर कविता - Darsaal

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था

कि मेरे लब पे वही था जो मेरे मन में था

कसक उठी थी कुछ ऐसी कि चीख़ चीख़ पड़ूँ

रहा मैं चुप ही कि बहरों की अंजुमन में था

उलझ के रह गई जामे की दिलकशी में नज़र

उसे किसी ने न देखा जो पैरहन में था

कभी मैं दश्त में आवारा इक बगूला सा

कभी मैं निकहत-ए-गुल की तरह चमन में था

मैं उस को क़त्ल न करता तो ख़ुद-कुशी करता

वो इक हरीफ़ की सूरत मिरे बदन में था

उसी को मेरे शब-ओ-रोज़ पर मुहीत न कर

वो एक लम्हा-ए-कमज़ोर जो गहन में था

मिरी सदा भी न मुझ को सुनाई दी 'साबिर'

कुछ ऐसा शोर बपा सहन-ए-अंजुमन में था

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In Hindi By Famous Poet Nau Bahar Sabir. is written by Nau Bahar Sabir. Complete Poem in Hindi by Nau Bahar Sabir. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.