है वही नाज़-आफ़रीं आईना-ए-नियाज़ में
है वही नाज़-आफ़रीं आईना-ए-नियाज़ में
जिस की ज़िया है सोज़ में जिस की सदा है साज़ में
अपने नियाज़-मंद है पर्दे की रस्म-ओ-राह है
वर्ना हिजाब को कहाँ दख़्ल हरीम-ए-नाज़ में
सज्दे में मर गया अगर फिर न उठेगा हश्र तक
क़ैद न रखिए वक़्त की मेरे लिए नमाज़ में
नाज़ को नूर कर दिया सर्वर-ए-काइनात ने
वो जो लगी थी तूर पर आ के बुझी हिजाज़ में
'नातिक़' सोख़्ता-जिगर दिल पे तो हाथ रख ज़रा
अब के भी कुछ चमक सी थी नाला-ए-जांगुदाज़ में
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