तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
घर जुदा खाने को आए दर-ओ-दीवार जुदा
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जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
हाँ ये तो बता ऐ दिल-ए-महरूम-ए-तमन्ना
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
हमारे ऐब में जिस से मदद मिले हम को
दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
सब को ये शिकायत है कि हँसता नहीं 'नातिक़'
अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
कर दिया दहर को अंधेर का मस्कन कैसा