सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
दिल है वो सुब्ह का भटका जो सर-ए-शाम मिला
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तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
उसी की देन है ग़म में गिला नहीं करता
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
ये ख़ुदा की शान तो देखिए कि ख़ुदा का नाम ही रह गया
जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
कुछ नहीं अच्छा तो दुनिया में बुरा भी कुछ नहीं
नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई