सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
मंगल है जिस में जा के वो जंगल उठा तो ला
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कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
तुम ऐसे अच्छे कि अच्छे नहीं किसी के साथ
मिरे ग़म की उन्हें किस ने ख़बर की
शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा
ढूँडती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
ऐ जुनूँ बाइस-ए-बदहाली-ए-सहरा क्या है
चाल और है दुनिया की हमारा है चलन और
हाँ ये तो बता ऐ दिल-ए-महरूम-ए-तमन्ना
मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज