रक्खी हुई है सारी ख़ुदाई तिरे लिए
हक़दार बन के सामने आ माँग या न माँग
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उम्र भर का साथ मिट्टी में मिला
धूम कर रक्खी थी कल रिंदों ने बज़्म-ए-वा'ज़ में
मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
ये ख़ुदा की शान तो देखिए कि ख़ुदा का नाम ही रह गया
चराग़ ले के फिरा ढूँढता हुआ घर घर
आ उम्र-ए-रफ़्ता हश्र के दम-ख़म भी देख लें
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
घर बनाने की बड़ी फ़िक्र है दुनिया में हमें
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
लो जुनूँ की सवारी आ पहुँची
तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को