फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
जब और दूसरा नहीं कोई लिबास पास
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ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
जुनूँ तलाश में है पा न ले बहार मुझे
नहीं रुकता तो जा ख़ुदा-हाफ़िज़
गुल शोर कहाँ का है सुन तो सही ओ ज़ालिम
हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब
इज़्तिराब-ए-दिल में आ जा कर दवाम आ ही गया
ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
रहते हैं इस तरह से ग़म-ओ-यास आस-पास