नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई
इक आईने में पहले आदमी था मेरी सूरत का
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है मरज़ तो जो कुछ है थी दवा तो जैसी थी
नहीं रुकता तो जा ख़ुदा-हाफ़िज़
ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
मिरे ग़म की उन्हें किस ने ख़बर की
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
जिस की हसरत थी उसे पा भी चुके खो भी चुके
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
बंदगी कीजिए मगर किस की
सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल