मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो
मिल गई राह-ए-सुकूँ गर्दिश-ए-दौराँ के क़रीब
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दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
ऐ दिल-ए-शिकवा-संज क्या गुज़री
तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
ऐ मुसव्विर सूरत-ए-दिल-गीर खींच
भाग कि मंज़िल-ए-क़रार उम्र की रहगुज़र नहीं
दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही