मिले मुराद हमारी मगर मिले भी कहीं
ख़ुदा करे मगर ऐसा ख़ुदा नहीं करता
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इस ख़ाक-दान-ए-दहर में घुटता अगर है दम
सब को ये शिकायत है कि हँसता नहीं 'नातिक़'
जुनूँ तलाश में है पा न ले बहार मुझे
नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
बंदगी कीजिए मगर किस की
अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
चाल और है दुनिया की हमारा है चलन और
ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या
ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था