लो जुनूँ की सवारी आ पहुँची
मेरे दामन पे चल रहा है चाक
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सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल
अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब
अब जहाँ में बाक़ी है आह से निशाँ अपना
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा