खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
ऐ अजल कब तक रहेंगे रहन-ए-आब-ओ-दाना हम
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गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो
सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
इंतिज़ाम-ए-रोज़-ए-इशरत और कर ऐ ना-मुराद