खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
बात किस की रह गई कोई अदू सच्चा न हम
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फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो न बयान-ए-शे'र में
नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई
आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया
पहुँच गए तो करेंगे इधर-उधर की तलाश
वो मिज़ाज पूछ लेते हैं सलाम कर के देखो
रहते हैं इस तरह से ग़म-ओ-यास आस-पास
लो जुनूँ की सवारी आ पहुँची
मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार