कौन इस रंग से जामे से हुआ था बाहर
किस से सीखा तिरी तलवार ने उर्यां होना
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कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
हंगामा-ए-हयात से लेना तो कुछ नहीं
हम तो मस्जिद से भी मायूस ही आए 'नातिक़'
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
रक्खी हुई है सारी ख़ुदाई तिरे लिए
मिले मुराद हमारी मगर मिले भी कहीं
ये ख़ुदा की शान तो देखिए कि ख़ुदा का नाम ही रह गया
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
अव्वल अव्वल ख़ूब दौड़ी कश्ती-ए-अहल-ए-हवस