कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
कल बस चले चले न चले चल उठा तो ला
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जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
कौन इस रंग से जामे से हुआ था बाहर
मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
जो सुनते हैं तो मैं मम्नून हूँ उन की इनायत का
इस ग़म को ग़म कहें तो कहें सौ में हम ग़लत
दूसरा ऐसा कहाँ ऐ दश्त ख़ल्वत का मक़ाम
लो जुनूँ की सवारी आ पहुँची
शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा
हम तो मस्जिद से भी मायूस ही आए 'नातिक़'
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का