जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
आती जाती है अब इस बुत की नहीं हाँ के क़रीब
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रिंद की काएनात क्या है ख़ाक
पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
रहती है शम्स-ओ-क़मर को तिरे साए की तलाश
कुछ नहीं अच्छा तो दुनिया में बुरा भी कुछ नहीं
ऐ ज़िंदगी जुनूँ न सही बे-ख़ुदी सही
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ