जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ
रंज उठाने ही की ठहरी है तो फिर दिल से उठा
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सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द
ऐ निगाह-ए-मस्त उस का नाम है कैफ़-ए-सुरूर
देख ये बार कभी सर से उतरता ही नहीं
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर