गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो
सहारा हो गया है दीन दुनिया-दार लोगों का
Rahat Indori
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उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
है मरज़ तो जो कुछ है थी दवा तो जैसी थी
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
खो दिया शोहरत ने अपनी शेर-ख़्वानी का मज़ा
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया
कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो न बयान-ए-शे'र में
दोस्ती किस की रही याद वो किस पर भूला
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
रिंद की काएनात क्या है ख़ाक