घर बनाने की बड़ी फ़िक्र है दुनिया में हमें
साहब-ए-ख़ाना बने जाते हैं मेहमाँ हो कर
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सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ
क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम
जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला
ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया