ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
बुत ने घबरा के कहा मुझ से कि क़ुरआन उठा
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दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही
जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ
कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
बे-ख़ुद-ए-शौक़ हूँ आता है ख़ुदा याद मुझे
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
अब जहाँ में बाक़ी है आह से निशाँ अपना
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है