ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ
भर गया जितना हमारी उम्र का पैमाना था
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ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
मिले मुराद हमारी मगर मिले भी कहीं
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
हंगामा-ए-हयात से लेना तो कुछ नहीं
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
आती है याद सुब्ह-ए-मसर्रत की बार बार
हमारे ऐब में जिस से मदद मिले हम को
भाग कि मंज़िल-ए-क़रार उम्र की रहगुज़र नहीं
ऐ बादा-कश गई है मय-ए-ऐश किस के साथ
पहुँच गए तो करेंगे इधर-उधर की तलाश