ऐ बादा-कश गई है मय-ए-ऐश किस के साथ
हर इक ने ले के जाम को आगे बढ़ा दिया
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ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
भाग कि मंज़िल-ए-क़रार उम्र की रहगुज़र नहीं
इस ग़म को ग़म कहें तो कहें सौ में हम ग़लत
हाँ जान तो देंगे मगर ऐ मौत अभी दम ले
आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब
फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
रहते हैं इस तरह से ग़म-ओ-यास आस-पास
है मरज़ तो जो कुछ है थी दवा तो जैसी थी
चराग़ ले के फिरा ढूँढता हुआ घर घर
मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था