अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
जब कलाम आया ज़बाँ पर ला-कलाम आ ही गया
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बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
ऐ मुसव्विर सूरत-ए-दिल-गीर खींच
ज़िक्र-ए-शराब-ए-नाब पे वाइ'ज़ उखड़ गया
भर पाए जान-ए-ज़ार तिरी दोस्ती से हम
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया