आती है याद सुब्ह-ए-मसर्रत की बार बार
ख़ुर्शीद आते आते उसे कल उठा तो ला
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हम हैं तो न रक्खेंगे इतना तुझे अफ़्सुर्दा
हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
ढूँडती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही
नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई
उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
हम तो मस्जिद से भी मायूस ही आए 'नातिक़'
आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था