आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
ख़ुद अपनी राह ली मुझे रस्ता बता दिया
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हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में
भर पाए जान-ए-ज़ार तिरी दोस्ती से हम
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
इस ख़ाक-दान-ए-दहर में घुटता अगर है दम
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
क्या करूँ ऐ दिल-ए-मायूस ज़रा ये तो बता