आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
हम को था ही क्या लेना बुत मिले ख़ुदा पाया
Allama Iqbal
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क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम
आती है याद सुब्ह-ए-मसर्रत की बार बार
मिले मुराद हमारी मगर मिले भी कहीं
शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा
कर दिया दहर को अंधेर का मस्कन कैसा
इस ख़ाक-दान-ए-दहर में घुटता अगर है दम
ग़म जुदा पेश रहा है मिरे अफ़्कार जुदा
सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया
देख ये बार कभी सर से उतरता ही नहीं
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना