क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
किस से मिलना है ख़ाक में मिल के
ऐ दिल-ए-शिकवा-संज क्या गुज़री
किस लिए होंट रह गए सिल के
मिटते जाते हैं राह-ए-उम्र में दोस्त
मिल रहे हैं निशान मंज़िल के
छोड़ 'नातिक़' फ़ज़ा-ए-बज़्म-ए-शिकस्त
उठ के टुकड़े सँभाल ले दिल के
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हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा
गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो
मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
रह-नवरदान-ए-वफ़ा मंज़िल पे पहुँचे इस तरह
मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
जो सुनते हैं तो मैं मम्नून हूँ उन की इनायत का
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में