मोहब्बत की आख़िरी नज़्म
दम-ए-रुख़्सत
तपे हुए लहजे में ख़ामोश रहने वाला
आँखों तक सुलग उठा होगा
उस की साँसों से मेरा दम रुक गया
और मेरी हथेलियाँ धड़कने लगीं
मेरा मर्द पूरे चाँद की तरह मुझ पर छा गया
वो आग से मुरत्तब है
मेरे अंग अंग में पिघलने की आरज़ू है
उस के लम्स में मेरे ख़मीर की ख़ुशबू कहाँ से समा गई
कि मैं अपनी तलाश में उस तक आ पहुँची
उस की आँखों में मेरी आँखें थीं
जब उसे मुझ से जुदा किया गया
वो दरवाज़े से बाहर भी दरवाज़े के अंदर था
और मैं दरवाज़े के अंदर भी दरवाज़े से बाहर थी
(444) Peoples Rate This