बारिश देखती है
बारिश देखती है कि उसे कहाँ बरसना है
और धूप जानती है कि उसे कहाँ नहीं जाना
मगर वो जाती है और शिकार होती है
और काँटों में फँस कर बट जाती है
और रेत के ज़र्रों की तरह
ज़मीन से उठाई नहीं जाती
रात समझती है और समझ कर ख़ामोश रहती है
सिर्फ़ अपने कोनों पर गिर्हें लगाती रहती है
और कहती है
आ मिल ढोलन यार कदी
केदारे के ताने-बाने में
देख तो मैं ने क्या बुना है
एक फूलबन! एक रास-बन
और अब
धारे धारे चली जाती हूँ मैं
बन बीच उतरूँ, काँटे रंग दूँ?
धारे धारे बही जाती हूँ
और भेद नहीं पाती हूँ
न पल छन का
न युगों युगों के अंतर का
तुम सुंदर ज्ञानी शांत हुए
मोहे अपनी सीत करो स्वामी
सब चिड़ियाँ इक संग बोलती हैं
मोहे अपनी सीत करो स्वामी और दूर कहीं उड़ जाती हैं
मैं अपने हर इक कोने पर चालीस गिर्हें लगवाती हूँ
तन जोंक जोंक डसवाती हूँ
और धूप को ये मालूम नहीं
कब मुझ पर साया करना है! कब मुझ को रौशन करना है
कब मेरी ख़ाक उड़ानी है
कब मेरे अंग अंग भरना है
मैं गठरी गीले कपड़ों की
किस घाट मुझे अब धरना है!
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