कह रही है ये क्या सबा कुछ सोच
कह रही है ये क्या सबा कुछ सोच
ऐ हसीं पैकर-ए-जफ़ा कुछ सोच
चंद रोज़ा बहार पर मत जा
गुल का अंजाम क्या हुआ कुछ सोच
ये हसीं रुत ये चाँदनी ये बहार
ऐसे आलम में तो न जा कुछ सोच
क्या हुए रह-रवान-ए-मंज़िल-ए-शौक़
क्यूँ है सुनसान रास्ता कुछ सोच
ख़ार जिस से लिपट के रोते थे
आबला-पा वो कौन था कुछ सोच
हम न होंगे तो तेरी महफ़िल में
कौन होगा ग़ज़ल-सरा कुछ सोच
बिफरी लहरों पे छोड़ दी कश्ती
क्या किया तू ने ना-ख़ुदा कुछ सोच
रहबरी का भरम न खुल जाए
पा-शिकस्तों के रहनुमा कुछ सोच
किस को चाहे तिरे सिवा 'नासिर'
कौन है तुझ सा दूसरा कुछ सोच
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