दयार-ए-शौक़ में कोसों कहीं हवा भी नहीं
दयार-ए-शौक़ में कोसों कहीं हवा भी नहीं
उमस है ऐसा कि पत्ता कोई हिला भी नहीं
ख़फ़ा नहीं है मगर इस अदा को क्या कहिए
पुकारता हूँ तो वो मुड़ के देखता भी नहीं
ये किस मक़ाम पे तन्हाई सौंपते हो मुझे
कि अब तो तर्क-ए-तमन्ना का हौसला भी नहीं
बड़ा गिला है दिल-ए-ग़म-परस्त को तुम से
वो दर्द उस को दिया है जो ला-दवा भी नहीं
कहाँ तलाश करें जुज़ तिरे सुकून-ए-नज़र
कि इस जहाँ में कोई तुझ सा दूसरा भी नहीं
बसा हुआ है मिरे दिल में बू-ए-गुल की तरह
वो दूर दूर है मुझ से मगर जुदा भी नहीं
किसे सुनाओगे तुम मुज़्दा-ए-सहर 'नासिर'
वो रत-जगे हुए अब कोई जागता भी नहीं
(459) Peoples Rate This